Meaning of Gunchaa

रविवार, दिसंबर 18, 2011

नैनों की भाषा



कभी किसी की याद में पलकें मेरी भीग जाती हैं
तो कभी ख़ुशी के मारे ये बिना वजह भर आती हैं
ना जाने ये आँखें क्या कहना चाहती हैं...

जो देख ले कोई प्यारभरी  नज़र से
शर्म से ये झुक जाती हैं
जागती आँखों से ही कितने, ख्वाब ये देख जाती हैं
ना जाने ये आँखें क्या कहना चाहती हैं...

कभी किसी की तलाश में बेचैन हो जाती हैं
बिछड़ जाए कोई अपना तो सारी रात जगाती हैं
हर पल सूरत उसी की फिर आईने में नज़र आती हैं
ना जाने ये आँखें क्या कहना चाहती हैं...

कभी ये सोचता हूँ दिल की मेरे व्यथा,
माँ कैसे जान जाती है?
जितना छुपाऊँ माँ तुझसे मैं
भेद मेरे ये सारे खोल जाती हैं
ना जाने ये कम्बखत आँखें क्या कहना चाहती हैं...

कौन जानता है किस मुसीबत में ये डाल दे हमें
ज़िंदगी की किन लहरों में डूबा दें हमें
हर पल हम जीते हैं,
हर पल हम मरते हैं
पर अब इन आँखों पे, हम भरोसा नहीं करते है...



- मनप्रीत

शुक्रवार, अक्तूबर 28, 2011

एक राज़

हर राज़ मेरे तुम कहीं छुपा देना
दामन में अपने कुछ इस तरह दबा देना
कि कोई इसे फिर ढूंड न पाए
हाथों की लकीरों से भी इनके निशान मिट जाएं
तेज़ हवाओं के झोकों में
वो सफ़े कहीं उड़ा देना
हर राज़ मेरे तुम कहीं छुपा देना

जो हो तुम खफा मुझसे,
तो मुझे कभी जता देना
अपने इन एहसासों को
मेरी धड़कन तक पहुंचा देना
जो फिर भी समझ न पाऊँ तुमको
'नासमझ' मुझे कहला देना
पर ये राज़ तुम कहीं छुपा देना

"चेहरा एक नकाब के पीछे छुपा रखा है मैंने
हर गुनाह को फूलों की तरह सजा रखा है मैंने"

जब बहती नदी की धारा में
ये अस्थियाँ मेरी बहा देना
तब तुम चाहे सबको
ये राज़ भले बतला देना...




- मनप्रीत


शुक्रवार, अगस्त 19, 2011

जनलोकपाल


ये गाना "जनलोकपाल" को समर्पित है, जो की 1954 "जागृति" फिल्म के गाने "आओ बच्चो तुम्हें दिखाएं" में कुछ बदलाव करके मैंने बनाया है, आशा करता हूँ की आपको पसंद आएगा

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आओ लोगों तुम्हे दिखाएं शमता जनलोकपाल की
इस बिल को तुम गले लगाओ ये क्रांति है बदलाव की

जनलोकपाल जनलोकपाल...
जनलोकपाल जनलोकपाल...

सबसे बड़े लोकतंत्र पे हमको भी अभिमान है
लेकिन कुछ लोगों ने करदी नीची इसकी शान है
भ्रष्टाचार के दल-दल में फंस गया ये हिंदुस्तान है
देखो फिर से मांगे हमसे मिटटी ये बलिदान है,

आओ लोगों तुम्हे दिखाएं शमता जनलोकपाल की
इस बिल को तुम गले लगाओ ये क्रांति है बदलाव की

जनलोकपाल जनलोकपाल...
जनलोकपाल जनलोकपाल...

अन्ना जी के पथ पे चलके आगे बड़ते जाना है
इस बिल को मिलके हमने संसद में पास करना है
इस ज्वाला को हमने अपने लहू से फिर जलना है
आने वाली पीड़ी को एक उज्वल देश थमाना है

आओ लोगों तुम्हे दिखाएं शमता जनलोकपाल की
इस बिल को तुम गले लगाओ ये क्रांति है बदलाव की

जनलोकपाल जनलोकपाल...
जनलोकपाल जनलोकपाल...



- मनप्रीत



गुरुवार, जुलाई 28, 2011

मेरी नज़र से...(भाग-१)


जो बात आज मैं आप के सामने रखने जा रहा हूँ ये एक वास्तविक घटना  है  जिसे वैसे तो शब्दों में बयां करना मेरे लिए कुछ कठिन हैं क्योंकि वह एक एहसास हैं जिसे केवल महसूस किया जा सकता है परुन्तु फिर भी एक कोशिश कर रहा हूँ 

ये बात एक दोपहर की है, रोज़ की तरह ही मै मेट्रो से अपने दफ़्तर जा रहा था और रोज़ की तरह वो ही भीड़-भाड़, वो ही अफरा - तफरी का माहौल था, किसी को कहीं जाने की जल्दी तो किसी को कही जाने की । कोई अपने फोन पर बात कर रहा है तो कोई अपने वाज्य यंत्र पे गाने सुन रहा है और वहां दूर किसी कोने में एक प्रेमी जोड़ा एक दूसरे से अठखेलियां कर रहा है

पर दोस्तों इस सब अफरा - तफरी के माहौल के बीच जहाँ हर कोइ अपनी ही धुन में रंग है, दो शख्स मुझे कुछ अलग से दिखाई दिए जिन्होंने मेरा ध्यान अपनी और आकर्षित किया। अलबत्ता दोनों ही देखने में बहुत ही सामान्य नज़र आ रहे थे, दोनों ने सामान्य से ही वस्त्र पहने थे और दिखने में भी पड़े लिखे लग रहे थे। पर फिर भी उनमे और एक सामान्य व्यक्ति में बहुत अंतर था और वह अंतर ही उन्हें भीड़ से अलग करता था


हालांकि मैं उनसे कुछ ही फासले पर ही खड़ा था पर फिर भी उनकी गुफ्तगू नहीं सुन पा रहा था, पर वह दोनों स्वाभाव से बहुत ही जिंदादिल और खुशमिज़ाज मालूम पड़ते थे और उनके चेहरे से बहुत ही शीतलता छलकती थी एक पल तो दिल ने चाहा की उनकीं इस जिंदादिली का राज़ पूछूँ पर शायद हिम्मत नहीं जुटा पाया और केवल दो चार- कदम आगे बड़ा  के ही रुक गया। लेकिन अब भी में उनकी बातें नहीं सुन पा रह था, समझ नहीं पा रहा था की मेट्रो में शोर ज़्यादा था या मेरे कान ख़राब हो गए हैं। पर कुछ देर उन्हें गौर से देखने के बाद मुझे ज्ञान हुआ के वह दोनों बोल-सुन नहीं सकते, वह केवल इशारों की भाषा ही समझते हैं और ये ही बात उन्हें भीड़ से अलग करती थी 

उन दोनों को देख कर मुझे दुःख तो हुआ पर साथ ही साथ मैं बहुत हैरान भी हुआ ये देख कर की भला कैसे कोई बिना बोलने - सुनने की शमता के बिना इतना खुश रह सकता है? क्या हर पल उन्हें अपनी इस कमी का एहसास नहीं होता? क्या उन्हें रोज़ मररह की ज़िन्दगी में सामान्य लोगों के बीच हास्य का पात्र नहीं बनना पड़ता?

हम इंसानों की आदत होती है की अक्सर हम असामान्य चीज़ को एक-टुक  हो कर देखते हैं बिना ये सोचे समझे की हमारी ये निगाहें किसी को तलवार से गहरा ज़ख़्म  दे सकती है। बहराल इन सब सवालो का जवाब तो केवल वो ही व्यक्ति दे सकता है जो इन हालातों से गुज़रता है। 

हो सकता है मुझे केवल उनकी हंसी ही नज़र आई हो, उस हंसी के पीछे छुपा वह दर्द मेरी कमज़ोर नज़र न देख पाई हो "हम जो हँसते हैं तो उन्हें लगता है के हाल-ए-दिल अच्छा है, पर वह ये भूल जाते हैं की हँसते हुए भी आंसू टपका करते हैं " 

उन दोनों की वह मीठी सी मुस्कान मुझे आज भी याद है और मैं जब भी उसके बारे में सोचता हूँ अपने आप को सामान्य होने के बावजूद उनके सामने बहुत ही छोटा महसूस करता हूँ...

सोमवार, मई 02, 2011

बचपन


'मन' मेरा अब पहले सा नहीं रहा

कुछ ना कह कर भी ये 

बहुत कुछ कह जाता था

मेरे अंदर भी कहीं, बच्चा एक समाता था

जो हर पर हँसता था, गाता था

परेशानियों से दूर तक, ना कोई इसका नाता था

पर उम्र के साथ...

ना जाने इस मन को क्या हो गया है

जितना चंचल था ये पहले

अब उतना ही कठोर हो गया है

अस्तित्व मेरा अब तितर-बितर हो गया है

लगता है वो बच्चा कहीं खो गया है...



- मनप्रीत

बुधवार, मार्च 30, 2011

तलाश...

यूँही सफ़र में चलते-चलते
कहीं मिल जाना

चंद घड़ियाँ ज़िन्दगी की
हमारे  साथ भी बिता जाना

यूँ तो चलना आता नहीं मुझे
किसी के साथ

पर तुम मुझे चलना
सिखा जाना

यूँही सफ़र में चलते-चलते
कहीं मिल जाना...

अगर तुम मिल जाओ तो ये सफ़र
आसानी से कट जाएगा

मेरी ज़िन्दगी का एक और सफ़ा(Page)
पलट जाएगा

अपने प्यार की थोड़ी सी मिठास
मेरे होंठों पर भी लगा जाना

यूँही सफ़र में चलते-चलते
कहीं मिल जाना...

जिस राह में तुम होगी
मैं उसी और अब चला आऊँगा

थाम लेना हाथ मेरा
वरना मैं भटक जाऊँगा

क्या हुआ जो जीने की अदा हम सीख न सके,
मरने के हुनर में माहिर हमें करा जाना

यूँही सफ़र में चलते-चलते
कहीं मिल जाना...



- मनप्रीत

सोमवार, मार्च 21, 2011

हम "इंसान" कहलाते हैं?


गिरते हुए को थामते नहीं
हम पीछे हट जाते हैं
किसी घायल को देख सड़क पर
हम मूंह फेर जाते हैं

क्या फिर भी हम "इंसान" कहलाते हैं?

सारा दिन पैसों के पीछे
दौड़ते-दौड़ते थक  जाते हैं
पर दो पल चैन से जीने के
फिर भी कहाँ मिल पाते हैं

क्या फिर भी हम "इंसान" कहलाते हैं?

रात को हम हैं काम करते
दिन में फिर खर्राटे भरते
दिवाली, होली पे भी
अब हम दफ्तर जाते हैं

क्या फिर भी हम "इंसान" कहलाते हैं?

अपना ज़मीर तो बेच चुके
अब देश को बेच हम खाते हैं
राजा, कलमाड़ी के जैसे ही
देश का सर झुकाते हैं

क्या फिर भी हम "इंसान" कहलाते हैं?

कसाब को हम हैं पकड़ते
उसकी फिर हैं पूजा करते
फँसी देने की जगह
उसे हम "खसम" बनाते हैं
छींक ज़रा सी आ जाने पर
डॉक्टरों की फ़ौज बुलाते हैं
भूख लगने पर उसे
"बटर चिक्केन" खिलाते  हैं

क्या फिर भी हम "इंसान" कहलाते हैं?

छोटी-छोटी बात पे
अपनों से  लड़ जाते हैं
जाने-अनजाने में अक्सर
कितनो का दिल दुखाते हैं
पर हमेशा ये भूल जाते हैं
के "गाँठ" लगे रिश्ते
आसानी से नहीं खुल पाते हैं

क्या फिर भी हम "इंसान" कहलाते हैं?



- मनप्रीत

बुधवार, मार्च 02, 2011

अक्स

मन में फिर से हलचल सी होने लगी है,
शांत समुंद्र में लहरें फिर से उठने लगी है,
कुछ तो है ऐसा जो मुझसे कहीं छूट गया है,
क्या वो मेरा अक्स था जो मुझसे आज रूठ गया है?

'जी' के जंजाल में उलझ कर रह गया हूँ
एक अन-सुलझी पहेली सी बन कर रह गया हूँ
साँसे भी जीने के लिए अब तो उधार लेता हूँ,
बस इस ही तरह दिन-रात मैं गुज़ार लेता हूँ...

रेत की तरह ये वक़्त मेरे हाथ से फिसल गया है,
सेहरा(Desert) में मिटटी की तरह अब अक्स मेरा बिखर गया है...
न इल्म था की अपनी आशाओं की नब्ज़ कुछ इस तरह थम जाएगी,
के अपने ही आंसुओं से अपनी प्यास मिट जाएगी...
बस कटी पतंग के जैसे उड़ता जा रहा हूँ
बिना मंजिल के अब मैं चलता जा रहा हूँ
मन के चिरागों को अब किसी का खौफ नहीं,
इसीलिए अब इन्हें हवाओं से बचा रहा हूँ...

धूप के साए में अक्स मेरा कहीं छुप जाता है
आईने में भी अब वह मुझे नज़र नहीं आता है
इसकी तलाश में अब मैं आपके दर पर आया हूँ
मिले कहीं आपकों तो इससे मुझे मिला देना,
और अगर ये मुमकिन ना हो तो आज किसी रोते हुए बच्चे को हँसा देना...



- मनप्रीत

 

गुरुवार, जनवरी 06, 2011

ना जाने क्यों?

ना जाने आज फिर क्यों मुझे वो इतना  याद आने लगे हैं,
जिन्हें भूलने में मुझे कईं ज़माने लगे हैं।
ना जाने क्यों मेरे दिल ने फिर उन्हें आज याद किया
जिन्होंने कभी दिल-ए-बर्बाद किया...

आँख बंद करते ही आज फिर वो सामने आ गए,
ना जाने क्यों इन भरते हुए ज़ख्मों को फिरसे वह सहला गए।
मैं तो उस मोड़ को छोड़ के आगे निकल चुका था,
ज़िन्दगी के मायने भी कबके मैं बदल चुका था,
पर ना जाने क्यों आज फिर वह मुझसे उस मोड़ पे टकरा गए,
शायद कोई बचा हुआ दर्द देने वापस आ गए...

पर अबके मैं उनका सामना ना कर पऊँगा,
इसीलिए देख के उनको आज मैं पलट जाऊँगा।
पर ना जाने क्यों वह मुझको इतना  रुला गए,
के ना चाहते हुए भी वह आंसू  बनके बहार आ गए...



- मनप्रीत