Meaning of Gunchaa

बुधवार, मार्च 30, 2011

तलाश...

यूँही सफ़र में चलते-चलते
कहीं मिल जाना

चंद घड़ियाँ ज़िन्दगी की
हमारे  साथ भी बिता जाना

यूँ तो चलना आता नहीं मुझे
किसी के साथ

पर तुम मुझे चलना
सिखा जाना

यूँही सफ़र में चलते-चलते
कहीं मिल जाना...

अगर तुम मिल जाओ तो ये सफ़र
आसानी से कट जाएगा

मेरी ज़िन्दगी का एक और सफ़ा(Page)
पलट जाएगा

अपने प्यार की थोड़ी सी मिठास
मेरे होंठों पर भी लगा जाना

यूँही सफ़र में चलते-चलते
कहीं मिल जाना...

जिस राह में तुम होगी
मैं उसी और अब चला आऊँगा

थाम लेना हाथ मेरा
वरना मैं भटक जाऊँगा

क्या हुआ जो जीने की अदा हम सीख न सके,
मरने के हुनर में माहिर हमें करा जाना

यूँही सफ़र में चलते-चलते
कहीं मिल जाना...



- मनप्रीत

सोमवार, मार्च 21, 2011

हम "इंसान" कहलाते हैं?


गिरते हुए को थामते नहीं
हम पीछे हट जाते हैं
किसी घायल को देख सड़क पर
हम मूंह फेर जाते हैं

क्या फिर भी हम "इंसान" कहलाते हैं?

सारा दिन पैसों के पीछे
दौड़ते-दौड़ते थक  जाते हैं
पर दो पल चैन से जीने के
फिर भी कहाँ मिल पाते हैं

क्या फिर भी हम "इंसान" कहलाते हैं?

रात को हम हैं काम करते
दिन में फिर खर्राटे भरते
दिवाली, होली पे भी
अब हम दफ्तर जाते हैं

क्या फिर भी हम "इंसान" कहलाते हैं?

अपना ज़मीर तो बेच चुके
अब देश को बेच हम खाते हैं
राजा, कलमाड़ी के जैसे ही
देश का सर झुकाते हैं

क्या फिर भी हम "इंसान" कहलाते हैं?

कसाब को हम हैं पकड़ते
उसकी फिर हैं पूजा करते
फँसी देने की जगह
उसे हम "खसम" बनाते हैं
छींक ज़रा सी आ जाने पर
डॉक्टरों की फ़ौज बुलाते हैं
भूख लगने पर उसे
"बटर चिक्केन" खिलाते  हैं

क्या फिर भी हम "इंसान" कहलाते हैं?

छोटी-छोटी बात पे
अपनों से  लड़ जाते हैं
जाने-अनजाने में अक्सर
कितनो का दिल दुखाते हैं
पर हमेशा ये भूल जाते हैं
के "गाँठ" लगे रिश्ते
आसानी से नहीं खुल पाते हैं

क्या फिर भी हम "इंसान" कहलाते हैं?



- मनप्रीत

बुधवार, मार्च 02, 2011

अक्स

मन में फिर से हलचल सी होने लगी है,
शांत समुंद्र में लहरें फिर से उठने लगी है,
कुछ तो है ऐसा जो मुझसे कहीं छूट गया है,
क्या वो मेरा अक्स था जो मुझसे आज रूठ गया है?

'जी' के जंजाल में उलझ कर रह गया हूँ
एक अन-सुलझी पहेली सी बन कर रह गया हूँ
साँसे भी जीने के लिए अब तो उधार लेता हूँ,
बस इस ही तरह दिन-रात मैं गुज़ार लेता हूँ...

रेत की तरह ये वक़्त मेरे हाथ से फिसल गया है,
सेहरा(Desert) में मिटटी की तरह अब अक्स मेरा बिखर गया है...
न इल्म था की अपनी आशाओं की नब्ज़ कुछ इस तरह थम जाएगी,
के अपने ही आंसुओं से अपनी प्यास मिट जाएगी...
बस कटी पतंग के जैसे उड़ता जा रहा हूँ
बिना मंजिल के अब मैं चलता जा रहा हूँ
मन के चिरागों को अब किसी का खौफ नहीं,
इसीलिए अब इन्हें हवाओं से बचा रहा हूँ...

धूप के साए में अक्स मेरा कहीं छुप जाता है
आईने में भी अब वह मुझे नज़र नहीं आता है
इसकी तलाश में अब मैं आपके दर पर आया हूँ
मिले कहीं आपकों तो इससे मुझे मिला देना,
और अगर ये मुमकिन ना हो तो आज किसी रोते हुए बच्चे को हँसा देना...



- मनप्रीत