मिट्टी के जज़्बात
इस मिट्टी के पुतले की
क्या मैं करूं अब बात
मोल हर बात का मिट्टी इसकी
मिट्टी की है ये काया
इस पुतले की "मैं" की ख़ातिर
जाने कितनों से मूंह मोड़ आया
इस मिट्टी के पुतले ने
खूब मुझे नचाया
"दो रोटी" पाने की ख़ातिर
दिन का चैन गवाया
पर भेद इस बेचैन जीव का
किसी ने ना पाया
सब कुछ पाने के बाद भी
क्या मैं करूं अब बात
मोल हर बात का मिट्टी इसकी
मिट्टी की है ये काया
इस पुतले की "मैं" की ख़ातिर
जाने कितनों से मूंह मोड़ आया
कभी सर चढ़ के बोलता अभिमान
कभी माया का इसे गुमान
पल भर का भरोसा नहीं
कब पुतले से उड़ जाए जान
इस मिट्टी के पुतले ने
खूब मुझे नचाया
"दो रोटी" पाने की ख़ातिर
दिन का चैन गवाया
पर भेद इस बेचैन जीव का
किसी ने ना पाया
सब कुछ पाने के बाद भी
क्यों "दो पल" न सो पाया
समाज के बंधनों ने इस पुतले पे
कर रखा इख़्तियार है
जो न सुकून से जीने देता है
और न छोड़ने को तैयार है
सुपुर्द-ए-खाक (मिट्टी) होने के बाद शायद
इसे कहीं करार आए
पर डरता हूँ, कहीं कब्र में भी बद-इनतेज़ामी की
शिकायत न ये रब से लगाए
- मनप्रीत