Click to play audio version of the poem☝️
कभी आंसू बनकर पीता रहा, कभी ज़ुबां का स्वाद बनाता रहा
नमक की डली मैं ज़िंदगी भर, चटकारे ले कर खाता रहाकभी नमक ज़्यादा खाने से ज़ायका मेरा बिगड़ गया
तो कभी कम नमक वाले खाने को मैं, बेस्वाद ही निगल गया
फीकी पड़ी महोब्बत को मैं, नमक रगड़ कर चखता रहा
सारा शहर मुझे देख, बावला समझ कर हंसता रहा
जब किसी को हाल जो मैंने दिल का अपने सुना दिया
मुट्ठी भर नमक उसने ज़ख्मों पर, दवा कह कर लगा दिया
माथे से पसीना मेरे टप-टप कर टपकता रहा
इस नमक का कर्ज़ मैं सारी उम्र भरता रहा
पर बात इतनी सी समझ नहीं आई मुझे
की चुटकी भर डालो या चमच भर, नमक वो बला है
मात्रा जिसकी बराबर रखना भी एक कला है
- मनप्रीत