Meaning of Gunchaa

गुरुवार, जून 12, 2025

मेरा प्यारा पायजामा...



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बड़ी शिद्दत से...
मैने एक पायजामा सिलवाया
उसपे धारियों वाला डिज़ाइन बनवाया
पर लोगों की बुरी नज़र उसे खा गई
चार दिन में ही बिचारे की सिलाइयाँ बाहर आ गई
"आसन" से वह कुछ इस तरह फट गया
जैसे भारत- पाकिस्तान दो हिस्सों में बट गया

कपड़ा उसका सूती था
लकीरें उसपे चमकदार थी
मनचाही कीमत देने को उसकी, पूरी दिल्ली तैयार थी
वो मेरी आखों का तारा था
4 कुर्तों को मेरे, उसका ही सहारा था

अब उसकी क्या मैं तारीफ करूं...

बिल्कुल भी नख़रे नहीं दिखाता था
Free size उसका हर किसी को पूरा आ जाता था
चाहे लंबाई में थोड़ा नाटा था
पर जो देख ले एक झलक, पहने बिना रह नहीं पाता था
वह दूर से नीला, और पास से पीला था
न कहीं से घिसा हुआ, न कहीं से ढ़ीला था
उसके रेशमी नाड़े को देख सब हैरान थे
कहाँ से लाए ऐसा पायजामा, ये सोच के मुहल्ले वाले परेशान थे

चाचा जी, ताया जी और "सो किलो" के फूफ़ा जी तक ने, उसे आज़माया था
पर हर किसी को उसमे, एक अपनापन नज़र आया था
लेकिन सबकी ख़्वाहिशें पूरी करते-करते "दम" उसका निकल गया
छोटी सी एक चीख के साथ, वो कई हिस्सों में बिखर गया
पर जाते-जाते भी वो अपना फर्ज़ अदा कर गया
अपने छोटे भाई "बरमुडे" (Shorts) को मेरे हवाले कर गया
पहन उसे अब, मैं अपना काम चलाता हूँ
खुली हवा का आनंद अब मैं, बरमुडे में पाता हूँ
मेरी अलमारी का हर कपड़ा आज बहुत उदास है
पर उसके जैसा एक और पायजामा अभी भी मेरे पास है

चाहिए हो आपको तो मुझे Comment में बता देना
फिर बाद में मत कहना, कि मेरे लिए भी एक सिल्वा देना


- मनप्रीत

मंगलवार, मई 06, 2025

लकीरें

 


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लकीरें कुछ इशारा कर जाती हैं

माथे पे आएं
तो चिंता बन के उभर आती हैं

हाथों में आएं
तो तकदीरें बन जाती हैं

चहरे पे आई लकीरें
तजुर्बे की गहराई बताती हैं

देशों में आए
तो सरहद कहलाती हैं

घर में आ जाए
तो बंटवारा कर जाती हैं

लकीर के इस पार या उस पार होने से
जीत हार तय हो जाती है

दिलों के दरमियां आई लकीरें
जल्दी से नहीं मिट पाती हैं

लकीरें कुछ इशारा कर जाती हैं


- मनप्रीत

बुधवार, अप्रैल 16, 2025

प्यार की फटी किताब...



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अलमारी के एक कोने में दबी...
प्यार की फटी किताब को आज जब हाथों में उठाया
कुछ बिखरे हुए सफों में, कुछ बिखरी हुई यादों को दबा पाया
हर लफ्ज़ को जब सांसों की गर्माहट से सहलाया
पन्ने - पन्ने को उसके मैंने, प्यार की गोंद से चिपका पाया

*जिलत उसकी फट चुकी थी
हर क़िरदार की पहचान मिट चुकी थी
प्यार उसके हर अक्षर में समाया था
उसमें बने दिल को आज भी धड़कता पाया था

ग़ौर से पढ़ा जब मैंने उसको, हर कहानी कुछ अधूरी थी
महक प्यार की फिर भी उसके हर पन्ने में पूरी थी
कुछ पन्नों में ख्वाब थे, कुछ में छुपे *आज़ाब थे
हर किरदार के अभिनय में रंग बेहिसाब थे

आगे के पन्नों से जब, धूल की चादर को हटाया
एक मुड़े हुए पन्ने में, मैंने अपना ज़िक्र पाया
कुछ सूखे हुए फूलों के साथ, नाम मेरा भी लिखा था
ये मत पूछो अब तुम मुझसे, कि किसने वो *पैगाम लिखा था
उस मुड़े हुए पन्ने को मैंने किताब से हटा दिया
वजूद उस कहानी का मैंने धुआं बना के उड़ा दिया

ये अधूरी कहानी भी, उसी किताब का हिस्सा है
हर लफ्ज़ में लिखा हुआ, एक प्यार का किस्सा है
आ के बैठना पास मेरे, तुम्हे हर किस्सा सुनाऊंगा
पूरी किताब का सार तुम्हें मैं ढाई आख़र में समझाउंगा


*जिलत - Outer cover of the book
*आज़ाब - Sufferings
* पैगाम - message
*अल्फाज़, लफ्ज़ - Word


- मनप्रीत

शुक्रवार, जनवरी 03, 2025

नमक




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कभी आंसू बनकर पीता रहा, कभी ज़ुबां का स्वाद बनाता रहा
नमक की डली मैं ज़िंदगी भर, चटकारे ले कर खाता रहा

कभी नमक ज़्यादा खाने से ज़ायका मेरा बिगड़ गया
तो कभी कम नमक वाले खाने को मैं, बेस्वाद ही निगल गया

फीकी पड़ी महोब्बत को मैं, नमक रगड़ कर चखता रहा
सारा शहर मुझे देख, बावला समझ कर हंसता रहा

जब किसी को हाल जो मैंने दिल का अपने सुना दिया
मुट्ठी भर नमक उसने ज़ख्मों पर, दवा कह कर लगा दिया

माथे से पसीना मेरे टप-टप कर टपकता रहा
इस नमक का कर्ज़ मैं सारी उम्र भरता रहा

पर बात इतनी सी समझ नहीं आई मुझे
की चुटकी भर डालो या चमच भर, नमक वो बला है
मात्रा जिसकी बराबर रखना भी एक कला है


- मनप्रीत



शुक्रवार, दिसंबर 27, 2024

उम्र चालीस की


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उम्र ये चालीस की बड़ी अजीब होती है
थोड़ी सी मीठी, थोड़ी नमकीन होती है

सच पूछो तो ये उम्र का ही तकाज़ा है
बीस जैसी शक्ति बची नहीं और साठ का हुआ नहीं अंदाज़ा है

दौड़ते हैं तो सांस अब जल्दी फूल जाती है
और घुटनों से कुछ "कट-कट" की आवाज़ आती है

कमर में लचक अब पहले जैसी नहीं रह गई
पता भी नहीं चला जवानी कैसे बह गई

अब तो, काले बालों में से सफ़ेदी झांकने लगी है
मेरी ये "काया" भी मुझे अब कम आंकने लगी है

यादाश्त भी अब टिम-टिमाने लगी है
माथे पे भी झुर्रियां नज़र आने लगी हैं

अलार्म से पहले नींद मेरी खुल जाती है
और अक्सर बैठे-बैठे सोफे पर, झपकी आ जाती है

राजमा, दाल मखनी, अब रास नहीं आती है
और घीया, टिंडे, तोरी, एक आंख नहीं भाती है

उम्र ये बहुत ज़ालिम है, ज़रा भी तरस खाती नहीं
पहले तो दूर की थीं, अब पास की चीज़ें भी साफ नज़र आती नहीं

कुछ सुधार दी बीवी ने, कुछ सुधर रही है
उम्र ये भी लगभग ठीक-ठाक सी गुज़र रही है


- मनप्रीत

मंगलवार, अगस्त 20, 2024

बच्चे हल्के, बस्ते भारी...


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कहने को तो दोस्त हैं, पर लगती अब बोझ हैं
हर अक्षर को *सोज़ बना डाला है
किताबों को स्कूल ने बोझ बन डाला है

कमी नहीं है इम्तिहान की, कमी है केवल सामान्य ज्ञान की
पर वह भी नहीं ये दे पाते हैं
इतने भारी बस्ते लेके नजाने बच्चे कैसे स्कूल जाते हैं

छुट्टियों में भी काम है, न दो पल का आराम है
प्रतिस्पर्धा की अग्नि की भेंट इनका जीवन कर डाला है
स्कूल और ट्यूशन ने बच्चों का बचपन जला डाला है

शिक्षा नीति नई हो, चाहे हो पुरानी, बदस्तूर जारी है आज भी वही कहानी
आंखों पे पट्टी बांध कर, नई शिक्षा प्रणाली को लिख डाला है
आ के देखो धरातल पर, तुमने तो केवल कांधे पर बोझ बड़ा डाला है

करना था पाठ्यक्रम 'कम' लेकिन तुमने तो बढ़ा दिया है
इतिहास पढूं या पढूं भुगोल, हर विषय को उलझा दिया है
और ऊपर से ये गणित जिसमे, जाने कैसे 'एक' में से 'दो' घटा दिया है

पर स्तिथि कुछ ऐसी है, कि बच्चे हल्के हैं, बस्ते भारी हैं
इन नन्हे- नन्हे कंधों पे डाली कितनी ज़िम्मेदारी है
माना कि ज्ञान की कोई कीमत नहीं, वह बहुत ज़रूरी है
पर बेमतलब का दबाव डालना, ये कैसी मजबूरी है?
 

*सोज़ - दर्द


- मनप्रीत

सोमवार, मई 20, 2024

मुश्किल तो ये है...

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तो जनाब, मुश्किल तो ये है...

हर बात मैं पत्नी से कह पता नहीं
और जो कह जाता हूं गलती से
मतलब उसका उल्टा निकाल लेती है वो जल्दी से

मुश्किल तो ये है...

*अव्वल तो, उसे मैं छेड़ता नहीं जान के
और अगर कभी हो जाती है मुझसे मिस्टेक
छिड़ जाता है जिंदगी में मेरी, पानीपत की जंग का री-टेक

मुश्किल तो ये है...

कि मैं भी कभी-कभी बोल देता हूं, ज़ुबान अपनी खोल देता हूं
पर सच को मेरे पहना दिया जाता है झूठ का नकाब
और आगे-पीछे कई सालों का मेरे, हो जाता है हिसाब

मुश्किल तो ये है...

कि छोटी-छोटी बातों का भी *फ़साना बना दिया जाता है
*नुक़्ते से नुक़्ते को जोड़कर
चक्रव्यू त्यार किया जाता है

बस फिर क्या ?

बिना वजह बहस में मुझे और खींच लिया जाता है
Point Blank पे निशाना रख के
मेरा शिकार किया जाता है

मानो हर और से उड़ता तीर मेरी और ही आता है
उन्हीं तीरों के वार से खुदको रोज़ बचाता हूं
सफ़ेद रुमाल हाथों में लेकर शांति का पाठ पढ़ाता हूं

पर मैं जानता हूं...
अंत में केवल सच की विजय होती है
पति तो हार जाता है और पत्नी *'अजय' होती है

* अव्वल - first
फ़साना - story
नुक़्ता - dot, बिंदू
अजय- invincible


- मनप्रीत

सोमवार, जुलाई 10, 2023

तैरता शहर गुरुग्राम...

Podcast version of the poem


चुल्लू भर बरसात में ही, शहर मेरा डूब जाता है
बारिश में गुरुग्राम घूमने का, मज़ा अलग ही आता है

घरों में पानी, रोड पे पानी, हर गली-कूचा भर जाता है
गुरुग्राम हमारा हमें फिर, Venice जैसा नज़र आता है

अलौकिक वो नज़ारा होता है
हर शख्स Cab नहीं, मानो Gandola में ऑफिस आ रहा होता है

Cybercity बनाने की चाहत में, बन हर जगह Swimming Pool गए हैं
शहर बसने से पहले, नाली बनाना भूल गए हैं

सड़क बनाई है बेचारों ने, भर के गड्ढे एक-एक
पर जब देखा तो हर घर के आगे, बन गई थी Sukna Lake

सड़क पर गड्ढे नहीं, गड्ढों में सड़क दिखती है अब
3 घंटे से निकला हूँ घर से, न जाने पहुँचगा कब

चलो, शहर तो बसा लिया तुमने, पर इसे डूबने से कैसे बचाओगे
Work from Home बहुत कर लिया हमने,
अब क्या Work from Riverside कराओगे ?

नहीं चाहिए शहर ऐसा जो हल्की रिमझिम में ढ़ह गया है
'शंघाई' बनाने का सपना हमारा, नालियों में बह गया है


- मनप्रीत

सोमवार, मई 29, 2023

रूठा हुआ चाँद...

Podcast version of the poem

कल रात चाँद कुछ उदास था तारों से भी नाराज़ था
चांदनी भी कुछ फीकी थी
सुना है सूरज की निगाहें भी दिन में तीखी थीं

मेरे लाख मनाने के बाद भी, चाँद नहीं मुस्कुराया
बादलों की *दुशाला के पीछे था उसने मुँह छुपाया
सितारे सो गए थे, वक़्त जैसे ठहर गया था
चाँद की राह देखते-देखते बीत रात का पहर गया था

बादल चले जा रहे थे
मानो चाँद के घर से वो भी मायूस आ रहे थे
तारों की टिम-टिमाहट में भी नहीं वो बात थी
क्या कहूं, वो कितनी अकेली रात थी

रात गुज़ारी हमने *फ़िराक़-ए-यार में
बैठे रहे राह ताकते हुए, चाँद के इनतिज़ार में
कभी आंखे मलते रहे, कभी पलकों को जगाते रहे
जल्द आएगा वो, ये कह के दिल को बहलाते रहे

सुबह होते-होते आखरी संदेसा पहुचाया सूरज के हाथ में
"चाहे पूरा नहीं, तो आधा आ
एक झलक अपनी दिखला के जा
आसमान के माथे की बिंदिया बनके
प्यास बादलों की बुझाता जा"

पर किरणों ने कहां, चाँद मिला नहीं कहीं खो गया है
किसी और देस में जा के, परदेसी हो गया है
उसका विश्वास मत करना, रूप उसका हर रोज़ बदल जाता है
कभी आधा, कभी पूरा, तो कभी ईद का चाँद बन जाता है

*दुशाला - चदर
फ़िराक़-ए-यार - separation from loved one

- मनप्रीत

गुरुवार, फ़रवरी 02, 2023

मिट्टी का पुतला...


Podcast version of the poem
मिट्टी के आंसू मेरे
मिट्टी के जज़्बात
इस मिट्टी के पुतले की
क्या मैं करूं अब बात

मोल हर बात का मिट्टी इसकी
मिट्टी की है ये काया
इस पुतले की "मैं" की ख़ातिर
जाने कितनों से मूंह मोड़ आया

कभी सर चढ़ के बोलता अभिमान
कभी माया का इसे गुमान
पल भर का भरोसा नहीं
कब पुतले से उड़ जाए जान

इस मिट्टी के पुतले ने
खूब मुझे नचाया
"दो रोटी" पाने की ख़ातिर
दिन का चैन गवाया

पर भेद इस बेचैन जीव का
किसी ने ना पाया
सब कुछ पाने के बाद भी
क्यों "दो पल" न सो पाया

समाज के बंधनों ने इस पुतले पे
कर रखा इख़्तियार है
जो न सुकून से जीने देता है
और न छोड़ने को तैयार है

सुपुर्द-ए-खाक (मिट्टी) होने के बाद शायद
इसे कहीं करार आए
पर डरता हूँ, कहीं कब्र में भी बद-इनतेज़ामी की
शिकायत न ये रब से लगाए


- मनप्रीत

शनिवार, जनवरी 07, 2023

आधी बातें... आधे मतलब...

Podcast version of the poem

जाते-जाते आज फिर वो बात अधूरी छोड़ गया
मेरी लिखी कहानी को, हाथों से अपने मिटो गया

कहनी थी कई बातें उसको, सुननी थीं कई बातें उसकी
पर माथे कि लकीरों को अपनी, हर बात पे मेरी सिकोड़ गया
जाते-जाते आज फिर वो बात अधूरी छोड़ गया

यूँ तो बात छुपना आता नहीं उसे
पर अपनी खामोशी के पीछे, सवाल हज़ारों छोड़ गया
जाते-जाते आज फिर वो बात अधूरी छोड़ गया

अपना समझ के मैंने उसको दिल का राज़ बताया था
पर सीधी सी बात मेरी को, वो टेढ़ा-मेढ़ा मरोड़ गया
जाते-जाते आज फिर वो बात अधूरी छोड़ गया

हर बात पे मेरी, ज़िक्र उसका ही आता था
पर देख के मुझको आज, चुपके से मूँह मोड़ गया
जाते-जाते आज फिर वो बात अधूरी छोड़ गया

तुम्ही बताओ...
साथ अधूरी बातों का, आधी हुई मुलाकातों का, जिनका रंग हमेशा ही फीका है
उन्हें ज़हन में रख के जीना, क्या ये भी कोई तरीका है?


- मनप्रीत

मंगलवार, जनवरी 03, 2023

युद्ध


कई शहर तबाह हो गए, कई घर फनाह हो गए 
इस जंग की आग में, कई अपने जुदा हो गए

ज़िन्दगी पल-पल रो रही है
हर बम के साथ, इंसानियत खो रही है

हर गली सूनी, हर बस्ती सूनी, हर घर में एक दर्द सुनाई देता है
ये शहर नहीं, आज हमें कब्रिस्तान दिखाई देता है

कोई लड़ने को है उकसाता, कोई हतियारों का अंबार लगता
अमेरिका के हथियारों का, इसी बहाने है परीक्षण हो जाता

UKRAINE-RUSSIA को लड़ता, हर मुल्क खड़ा बस देख रहा है
मुख-बधिर बनके NATO अपनी सियासी रोटियां सेक रहा है

इस युद्ध का कोई अंत नहीं, ये अब प्रतिष्ठा की बात है
तू जीते या मैं जीतूं, ये हारी हुई बिसात है

बुधवार, सितंबर 14, 2022

दर्द 'हिंदी' का..













कभी मिटाया गया है
कभी दबाया गया है
अंग्रेज़ी बोलने की चाहत में
मुझे हर पल भुलाया गया है

बोलने में मुझे गर्व नहीं
शर्मिंदा महसूस करते हैं
भाषाओं के चयन में
मुझे दो नम्बर पर रखते हैं

पढ़ने चले हो A, B, C, D...
पर ज्ञान हिंदी का अधूरा है
सच बताओ क्या तुम्हें
क, ख, ग... आता पूरा है ?

अगली बार जब बोलो इंग्लिश
एक बार मुझे याद करना
अपने लोगों के बीच में
न गैरों सा बर्ताव करना

हिंदी भाषा के ज्ञान की
आज नहीं कोई कीमत है
इसलिए मेरे बचने की
आशा बहुत ही सीमित है

माना है हर भाषा प्यारी
पर मुझे नहीं भुलाओ तुम
जिस सम्मान की मैं हूँ हक़दार
वो फिर मुझे दिलाओ तुम

पर नहीं मोहताज परिचय की मैं
सबसे पुराना मेरा इतिहास है
हर कोई बोलेगा फिर हिंदी
मुझे पूर्ण विश्वास है

हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।


- मनप्रीत

रविवार, सितंबर 11, 2022

दादी-नानी की कहानी




उनके चेहरे पर तजुर्बे की झुर्रियां है
उनकी आंखों में प्रेम का एहसास है
उनकी मुस्कान में धैर्य का आभास है
उनकी बातों से जीने की सही राह मिलती है
वो हर वक़्त अक्स की तरह मेरे साथ है
इसीलिए दादी-नानी का प्यार कुछ खास हैं

उनके माथे पे संतुष्टि की लकीरें हैं
उसके साये तले सुखों की बरसात है
उनकी डांट में भी प्यार छलक आता है
ऐसा प्यार किसी-किसी को ही मिल पाता है
उनकी असीसों (Blessings) की बरकत में कुछ बात है
इसीलिए दादी-नानी का प्यार कुछ खास हैं

पर हर बच्चे को कभी-कभी दोनो का प्यार नहीं मिल पाता
कभी ज़मीन, तो कभी आसमान नहीं मिल पाता
खुशनसीब होते हैं वो, जिन्हें मिलती है दोनों आंचल की छांव
जिनके पड़ते हैं दादी-नानी की दहलीज पर पांव
दोनों के आंगन की मिट्टी में लाड-प्यार की सौगात है
इसीलिए दादी-नानी का प्यार कुछ खास हैं


- मनप्रीत

मंगलवार, जून 28, 2022

आंखों की गवाही, दिल को सज़ा...


दिल ये मेरा आजकल बहुत शोर करता है
खाली-फोकट में बोर करता है
दिमाग भी इससे बहुत परेशान है,
कहता है कि ये नौटंकी की दुकान है।

दिमाग कहता है, बातें ये मेरी अनसुनी कर देता है,
घर (दिल) की खिड़कियां भी बंद कर लेता है।
मैं जहां रोकता हूं, ये वहां ज़रूर जाता है,
फिर बेवजह माहौल बनाता है।
साला! एक दम confusion फैला रखी है,
और मेरी तो इसने दही बना रखी है।
और रुठना... वो तो जैसे इसकी आदत में *शुमार है,
ये ज़रूर किसी गलत फ़हमी का शिकार है।

आखों की भी आज मुझे शिकायत आई है,
इसके *बेहयाई के क़िस्सों की, उसने भी *फेहरिस्त सुनाई हैं।
वो कहती है, की पहले भी ये कई बार हमें फसा चुका है,
आंखों का काजल बहुतों का चुरा चुका है।
करता है गलती, और ऊपर से भड़कता है,
धड़कनों की आवाज़ तेज़ करके, ज़ोर-ज़ोर से धड़कता है।
नज़रें मिला के, ये तो मुकर जाता है,
और शर्म से हमें झुकना करना पड़ जाता है।

ज़ुबां ने भी दिल पे *तोहमतें लगाईं हैं,
इस से भी बुलवाता है झूठ, ऐसी बात मेरे सुनने में आई है,
इसीलिए कचहरी में आज इस मनचले की पेशी करवाई है।
आंखों की गवाही सुनकर, दिल को सज़ा सुनाई है,
इसकी बातों का बहिष्कार करने की "दफा" इसपे लगाई है।
हालांकि, दिल की बातें न सुनने की कसम तीनों ने खाई है,
पर रिश्वत दे के इन्हें खरीदने की, अदा मैने दिल को सिखाई है।



*शुमार - हिस्सा
बेहयाई - बेशर्मी
फेहरिस्त - लिस्ट
तोहमतें - इल्ज़ाम
दफा - section in a law


- मनप्रीत

गुरुवार, मई 05, 2022

मेरा भगवान, तेरा ख़ुदा


कल गली के नुक्कड़ पे एक शख्स कुछ उदास सा खड़ा था
पूछा उससे जब नाम मैने, तो वो रो पड़ा था
कंधे पे रखा हाथ मैने उसके, और उसे चुप कराया
तब जा के कहीं उसने सारा मसला सुनाया और अपना नाम 'ख़ुदा' बताया

कहने लगा...

मंदिर और मस्जिद, दोनो घर के मेरे दरवाज़े हैं
मंत्र और आज़ान मेरे दिल की दो आवाज़ें हैं
चाहे कोई पढ़े चालीसा, चाहे पढ़े कुरान
फिर दोनों में भेद कैसा, जब दोनों मेरी हैं पहचान

क्या फर्क पड़ता है...

की कोई करे सजदा, या कोई हाथ जोड़कर करे याद
बस प्यार से पुकारो मुझे, मैं सुनता हूं हर फरियाद
कोई राम बोल के मुझे बुलाता, कोई मौला कहके दे आवाज़
फिर नजाने ये झगड़ा कैसा, जब दोनों हैं मेरे दिल के पास

न कोई जाति, न कोई मज़हब, कोई नहीं है मुझे गवारा
जो थामे हाथ इंसानियत का, वो ही है केवल मुझे प्यारा
पर देख के इनको लड़ता, मन मेरा लाचार है
जैसे मेरे घर के बीच खींच गई दीवार है

ये जलते शहर, जलते घर...
क्यों हर दिल में छुपी हुई एक ज्वाला है
जिसने इनकी आत्मा को जला डाला है
धर्म, जाती से ऊपर हूँ मैं, इसमे नहीं है कोई सवाल
फिर क्यों लड़ पड़ते हैं ये दोनों, जब दोनों का ही खून है लाल

जब हर कण में, हर क्षण में, हर वेश में मैं समाता हूं
इबादत करते वक़्त कभी राम तो कभी अल्लाह बन के याद आता हूं
अगर इतनी सी बात इन्हें कोई नहीं समझाएगा
तो पुराण और कुरान के दरमियां फासला कैसे मिट पाएगा

बिखरा हुआ वजूद अपना आज फिर से संजो रहा हूं
इस लिये कोने पे खड़ा हो के 'रो' रहा हूं


- मनप्रीत

गुरुवार, फ़रवरी 24, 2022

खामोशी



कितना अच्छा होता, हर बात हम तुमसे कह पाते
*रंज-ओ-गम दिल के तुम्हे बता पाते
लहरें जो अंदर उठ रही हैं
साहिल तक पहुंचा पाते
अच्छा होता, हर बात हम तुमसे कह पाते

हर लफ्ज़ ज़ुबां तक ला पाते
तेरे सवालों का जवाब दे पाते
कभी खुद से भी हम लड़ पाते
मन अपने को पढ़ पाते
अच्छा होता, हर बात हम तुमसे कह पाते

हर ज़ख्म को अपने दिखा पाते
मुखोटा चहरे से हटा पाते
दर्द दिए हैं तूने कितने
ये तुझको हम जता पाते
अच्छा होता, हर बात हम तुमसे कह पाते

बहराल,

होंठ सिले हुए हैं मेरे
ज़ुबान मेरी खामोश पड़ी है
सीने से उठ रहा है धुआं, जो नहीं किसी को दिख रहा है
दर्द अब नमी बनके पलकों तले, आंखों से मेरी रिस रहा है
यही समझ रहा हूँ बस अब
कि मैं मिट रहा हूँ, या ये (दर्द) मिट रहा है...


*रंज-ओ-गम = Grief and Sorrow


- मनप्रीत

गुरुवार, दिसंबर 30, 2021

एक "कोना" ऐसा भी...



क्यों ना आज...

घर के किसी कोने में कोई ऐसी जगह ढूंढी जाए

जहाँ अपने साथ कुछ वक़्त बिताया जाए

जहां तन्हाई से कुछ बात की जाए और कुछ पुरानी यादों से मुलाकात की जाए

आओ आज कोने में बैठ के गुफ़्तगू खुद के साथ की जाए...


पर ध्यान रहे!

बातें इतनी मद्धम हों कि दिल के दीवारो-दर से बहार न जा पाएं

कानों को तो भनक भी न लग पाए और ज़ुबां से कुछ फ़िसल न जाए


उसके बाद...

पलकों तले, ज़हन में दबी हर बात को टटोला जाए

परत- दर- परत उसे खोला जाए

वो पल जिनसे कभी चेहरे पे मुस्कान आई थी, उन्हें फिर से वक़्त से उधार लिया जाए

आंसू जो गिरफ्तार पड़े थे सदियों से, कुछ देर के लिए उन्हें रिहा कर दिया जाए


तब जा के...

दिल पे रखे बोझ से छुटकारा होगा

फिर वो कोना घर का तुम्हे सबसे प्यारा होगा


- मनप्रीत


रविवार, नवंबर 21, 2021

मेरा दिल... जैसे एक गुब्बारा हो



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मेरा दिल... जैसे एक गुब्बारा हो
जिसे प्यार की हवा का सहारा हो

कभी इस ओर, तो कभी उस ओर
इस जैसा न कोई आवारा हो

अपने प्यार से इसको थाम लेना
नाम इसका सरेआम न लेना

ध्यान रखना ! कहीं ये किसी ओर का न हो जाए
डोरी इसकी कहीं ओर न उलझ जाए

रंगों में इसके अपनी पहचान रखना
दिल के लिफाफे में, चुपके से अपना नाम रखना

और जब भर जाए मन तुम्हारा इससे...

चुभन भरे काँटों से दोस्ती इसकी करा देना
या तेज़ हवा के झोंके में, इसे तुम उड़ा देना

चमकेगा आसमान में बनके, जैसे टूटा हुआ तारा हो
मेरा दिल... जैसे एक गुब्बारा हो



- मनप्रीत



रविवार, सितंबर 19, 2021

कयोंकि नींद मेरी दोस्त है



जब पास जाता हूँ मैं बिस्तर के 
वो मुझे बुला लेता है
मौका देख के अपनी वो साज़िश को अंजाम देता है
वो कहता है" चाहे सोना नहीं, बस केवल दो पल के लिए लेट जा"

फिर मैं नादान... उसकी बातों में आ जाता हूँ
दबे पांव से उसकी और एक-एक कदम बढ़ाता हूँ
और धीरे-धीरे खुली बाहों से मुझको,
वो अपने आहोश में ले लेता है
तकिये को भी चुपके से अपनी, साज़िश में शामिल कर लेता है
जब सर रखता हूँ मैं ज़ानों * पे तकिये की,
वो लोरी मुझे सुनाता है
अपनी दोस्त "नींद" से भी, मेरा तआरुफ़ * कराता है
और बाकी की कहानी मेरी माँ पूरी कर देती है
चुपके से आकर मेरे, पैरों पे चादर ओढ़ा देती है

जब मकसद सबका पूरा हो जाता है
और आंखों पे मेरी ताला लग जाता है
मैं कुछ देर सो लेता हूँ
बस इस ही तरह हफ़्ते की छुट्टी, मैं अपनी पूरी कर लेता हूँ

...कयोंकि नींद मेरी दोस्त है

* ज़ानों : Laps
तआरुफ़ : Introduction


- मनप्रीत

रविवार, सितंबर 12, 2021

बूँदें...


न दिखें किसी को आंसू मेरे
न गम का हो आभास
इसीलिए चेहरे पे अपने, हंसी पिरोया करते हैं
बरसात के मौसम में अक्सर, हम खुल के रोया करते हैं

हर बूंद जो अम्बर से है गिरती
सीने पे घाव है गहरा करती
बादलों की गर्जन में हम, सिसकियों की आवाज़ दबाया करते हैं
बरसात के मौसम में अक्सर, हम खुल के रोया करते हैं

आवाज़ ये बारिश की मेरे कानों को चीर जाती है
टिप- टिप करती जैसे मेरे ज़ख्मों पे नमक लगाती है
फिराक-ए-यार* का इस मौसम में, लुत्फ उठाया करते हैं
बरसात के मौसम में अक्सर, हम खुल के रोया करते है

कभी कभी लगता है ऐसे
अम्बर भी रोता हो जैसे
हिकायतें* मोहब्बत की वो हमसे, कुछ इस तरह नुमाया* करता है
की साथ मेरे इस मौसम में, अम्बर भी रोया करता है


* फिराक-ए-यार : Pain of Separation
नुमाया : पेश, Represent
हिकायत : कहानी



- मनप्रीत

शनिवार, अगस्त 28, 2021

शेयर मार्किट की कहानी, हमको है सुनानी




शेयर मार्केट की सवारी, हम पे पढ़ गई भारी
इंडेक्स बना है गोली,
पर पोर्टफोलियो मेरे में है खून की होली
हर शेयर ऊपर भाग रहा है,
पर मेरे वाला वहीं नाच रहा है


जो बेचता हूँ, वो ऊपर भाग जाता है,
जो खरीदता हूँ, वो औंधे मूंह गिर जाता है
Tata Steel, Happiest Minds, Infy, हर शेयर ऊंचाइयों के मज़े लूट रहा है
पर मेरे वाला हर रोज़ 2-4 रुपए टूट रहा है
जो सोया हुआ था बरसों से, वो भी अब जाग उठा है,
पर लगता है मेरा शेयर, मोह माया सब त्याग चुका है


हर Multibagger मेरा, अब  के फेल हो गया,
जिसमे थी बढ़ने की उम्मीद, उसमे भी खेल हो गया
अरे, Vodafone-Idea भी अब तो मेरा फेल हो गया
बस अब Yes Bank पे है, टिकी उम्मीद सारी,
पर उसने भी कर रखी है गिरने की पूरी तैयारी


हां ! पर एक शेयर था ऐसा, जिसका रंग अभी हरा था,
जो पूरे जोश से भरा था और गिरते बाज़ार में भी सीना ताने खड़ा था
अब तो बस वही था, जिस ने मेरी नाओ बचाये रख्खी थी,
जैसे फेल बच्चों की क्लास में मैंने, किसी से डिस्टिंक्शन की आस रख्खी थी
पर जब अपने Profit के चक्कर में, मैंने उसे ही काट दिया,
अगले ही दिन कंपनी ने One+One का बोनस बांट दिया


हर रोज़ IPO एक नया बाजार में आ जाता है,
पर मेरे inbox में अक्सर, रिफंड का मेल दिख जाता है
जो allotment आती है गलती से, होता नहीं है उसमे Listing Gain
और आखिर में वो भी बन के, रह जाता है बस एक Pain
नहीं करूँगा कोई सौदा, कसम यही मैं खता हूँ
पर फिर अगले दिन ही मैं, IPO में bid लगता हूँ


Bull Run में है पूरा मार्केट
चाहे कोई हो Exchange
पर जेब मेरी में अब तो यारो, बची हुई है केवल "चेंज"
मत पूछो बस अब तुम मुझसे, कितने मैं गवा चुका हूं
मैं 4 पैसे कमाने की चाहत में, लाखों अपने फसा चुका हूं



- मनप्रीत

गुरुवार, अगस्त 26, 2021

आईने से गुफ़्तगू...




आईना मुझसे कुछ कहता है
कि तेरे घर में अब तुझ जैसा कोई नही रहता है

वो कहता है कि...

देख तेरी सूरत कितनी बदल गई है
"कलमों" (Sideburns) में सफ़ेद चांदनी बिखर गई है...
हर पका हुआ सफ़ेद बाल ये बताता है
की तेरे उम्र में हो गया आज कुछ इज़ाफ़ा है
पर रगों में ख़ून अब और रवां हो गया है
लगता है तू अब थोड़ा और जवां हो गया है

माथे पे लकीरें अब नज़र आने लगी हैं
नज़र भी कुछ-कुछ धोखा खाने लगी है
यादाश्त भी... ट्यूब लाइट की तारा फढ़- फढ़ाने लगी है
पर बातों में तेरी अब मुझे गहराई नज़र आने लगी है

माना कि कभी-कभी तुम्हे  ...
चलने में तक़लीफ़ होती है
घुटनों में ग्रीस कुछ कम महसूस होती है
और बैठे-बैठे अब तशरीफ़ कुछ ज़्यादा सुन होती है
हर चीज़ अब दिल जलती(Heartburn) है
पर दिल की आवाज़ अब तुझे ज़्यादा समझ आती है

देखता हूँ तुझे तो मुझे यकीन नही होता है
कि तू वो ही है, जो खुद पे इतना मरता था ?
शक़्ल तेरी ख़राब हो, पर साफ़ मेरा मुँह करता था

पर तू मायूस मत होना

क्योंकि... उम्र तेरी अब लज़्ज़त (Swad, Maza) दिलाने लगी है
ज़िन्दगी के इस मोड़ पे भी तुझ पे जवानी छाने लगी है
याद रखना... हर उम्र का अपना मज़ा होता है
क्योंकि चालीस के बाद ही तो आदमी जवां होता है


MEN WILL BE MEN ;)

- मनप्रीत

शनिवार, अगस्त 21, 2021

बातें, कुछ अनकहीं सी, कुछ अनसुनी सी...





कुछ वो न बोली
कुछ मैं ना बोला
फिर भी बातें हुईं हज़ार
क्या ऐसे ही होता है प्यार का इज़हार!

नब्ज़ कुछ उसकी भी थमी थी
हथेलियों पे बर्फ कुछ मेरी भी जमी थी
धड़कनो में थी गज़ब की रफ़्तार
क्या ऐसे ही चढ़ता है प्यार का बुखार!

आंखों ने उसकी हर बात की
मेरी पलकों ने भी... हर बात पे सजदा किया
फिर भी नज़रों में थी उसके हया बेशुमार
क्या ऐसे ही मिलती हैं प्यार में नज़रें पहली बार!

उसने जो-जो नहीं कहा, मैंने वो सब सुना
कांपते होठों पे आए उसके, हर एक लफ्ज़ को बुना
माथे पे आईं उसकी सिलवटों को पढ़ा कईं बार
क्या ऐसे ही समझ में आता है प्यार!

पर सच तो ये था...

कि सामने बैठी थी वो मेरे
और मैं उसे देख रहा था
हर गुज़रते हुए लम्हे को, यादों में कहीं समेट रहा था
पर दूरियां कुछ इस कदर बढ़ चुकी थी
की कहानी मेरी लिखने से पहले ही मिट चुकी थी


- मनप्रीत

रविवार, अगस्त 01, 2021

जो मांगी थी दुआ...















ना जाने वक्त को क्या मंज़ूर था
लगता जो बहुत दूर था
आज वो इतने करीब आ गया
माज़ी (Past) के भरे हुए ज़ख्मों को फिर से सहला गया
जो मांगी थी सजदे में हाथ उठा कर मैने, वो फिर से याद आ गई
लगता है आज मेरी दुआ क़ुबूल होने कि बारी आ गई


पर ए खुदा! पूछता हूँ मैं तुझसे...
क्या करूं मैं इस दुआ का अब ??
जिसका अब कोई वजूद नहीं
मैं तो... मैं तो इसे कब का भुला चुका हूं
सीने में कहीं दफ़ना चुका हूं
फिर क्यों तूने ये पूरी कर दी ??
क्या मेरी फेरी हुई तस्बीह (जप माला) ने तेरी आँखें भरदी ?


पर कुछ ऐसे किस्से, कुछ ऐसी यादें
जिन्हें न जता सकता हूं, न छुपा सकता हूं, न दिखा सकता हूं
जिन्हें सिर्फ पलकों तले दबा सकता हूँ
जिन्हें मैं अपनी हाथों की लकीरों से भी मिटा चुका हूं
डरता हूँ, कहीं फिर न वो सामने आ जाए
और अश्क बन कर मेरे दामन में छलक जायें


पर वादा है मेरा तुझसे खुदा...


एक रोज़ जब मैं घर आऊंगा तेरे
लूँगा तुझसे हिसाब, दिए गए हर दर्द का मेरे
पर मैं जानता हूँ...
मेरे हर सवाल को तू हंस के टाल देगा
हर बात में मेरी ही गलती निकल देगा ज़रूर
शायद मेरी एक और माज़ी (Past) की दुआ फिर कर देगा क़ुबूल


- मनप्रीत

शुक्रवार, जुलाई 23, 2021

वो एक पल...

 



जिसका का था ता-उम्र इंतज़ार
न इल्म था, वो पल कुछ इस तरह आएगा
एक तेज़ हवा का झोंका बनके, मुझे साथ ले जाएगा
और मैं... और मैं एक सूखे पत्ते की जैसे उसमे कहीं खो जाऊंगा
संभालना चाहूं खुदको, फिर भी नहीं संभाल पाऊंगा

पर शायद, ये ही तो मैं चाहता था!

की वो पानी के जैसे बहती रहे, मैं तिनके के जैसे बह जाउं
वो शम्मा के जैसी जलती रहे, और मैं परवाना बन के जल जाउं

पर अफ़सोस...

पर अफ़सोस इसी बात का रह गया
कि वो पल चंद लम्हों में बह गया
रोकना चाहा मैने उसे, पर वो पल रुका नहीं
यादों में जब झांका, तो भी कहीं दिखा नहीं
ख़्वाब था शायद, ख़्वाब ही होगा...


- मनप्रीत

रविवार, अप्रैल 04, 2021

दिल क्या ढूंढता फिरे...

दिल क्या ढूंढता फिरे
दो पल सकून के, कुछ पल आराम के
पर मंज़िल पे पहुंच के भी तू बैठा ना विश्राम से

तू भागता रहा हर पल
तू त्यागता रहा हर पल
वह दो पल मुस्कान के
ये दिल क्या ढूंढता फिरे
दो पल सकून के, कुछ पल आराम के

जो पा ना सका, तुझे उसकी तलाश है
जो पा लिया तूने उसके खोने का आभास है
सब कुछ जीतने की चाहत में
तू सब कुछ हारता फिरे
ये दिल क्या ढूंढता फिरे
दो पल सकून के, कुछ पल आराम के

जिसे पकड़ ना पाया तू उसे पकड़ना चाहता है(वक़्त)
जिस समझ ना पाया तू उसे समझना चाहता है(ज़िन्दगी)
जो छलक गया इन आंखों से, क्यों उसे समेटना चाहता है
इस गांठ लगी ज़िन्दगी को तू और क्यों उलझाता फिरे
दिल क्या ढूंढता फिरे,
दो पल सकून के, कुछ पल आराम के

अगर जीना चाहता है तू चैन से, तो सुन

WhatsApp, Instagram से रिश्ता तोड़ दे
Facebook, Twitter, और TikTok से तू मूंह मोड़ ले, 
छोड़ दे करना अपना STATUS update
क्यों करता है किसी के LIKE वेट
अब ज्वाइन करले तू Tinder
वहां बैठी है लड़की सुंदर
करले उससे आंखे दो चार
ज़िंदगी में और क्या रखा है मेरे यार
पर उसमें भी तू सुशील, संस्कारी खोजता फिरे,
ये दिल क्या ढूंढता फिरे
दो पल सकून के, कुछ पल आराम के

पर सच पूछो तो आराम तुझे तब ही मिल पाएगा
जब तू मधुशाला में जा के दो पेग लगाएगा
टेंशन का चखना बना के खा जाएगा
फिर दिल को नहीं होगा इंतज़ार किसी बात का
वह केवल इंतज़ार करेगा रात का
वह केवल इंतज़ार करेगा रात का...



- मनप्रीत

Nursery Admission




टूट गई है चप्पल मेरी
उखड़ गया है सोल आधा
बच्चे के admisson के चक्कर में
मैं कहां-कहां नहीं भागा

पर मुझे याद है आज भी वो दिन
जब दाखिले के लिए मैंने

MLA, मंत्री तक का दरवाज़ा खट- खटाया था
पर कोई मेरे काम नहीं आया था
किसी ने दिए थे बड़े आश्वासन
किसी ने मांगी माया
किसी ने कहा चिट्ठी ले जाओ, तो किसी ने कहा
तुम पहुचों, मेरे P.A. का फ़ोन बस आया

थक हार के मैं...
पीर - फकीरों के दरवाज़े पर भी आया
ताबीजें बंदवाई, टोटका करवाया,
हर तरह का मंतर फिरवाया
फिर भी कुछ काम न आया
इस दाखिले के ख़्वाब ने, मुझे कई रात जगाया

लॉटरी निकलेगी या नहीं
यही सपना रात को डराता था
ऐसे सिस्टम के चलते ही
भविष्य इन बच्चों का, अंधेरे में नज़र आता था

दखीले के लिए, कोई मांगता 5 लाख
कोई 4 लाख में था तैयार
ऐसे लगता है मानो
शिक्षा के मंदिर को बना डाला बाज़ार

शिक्षा, सिद्धान्तों का कोई मोल नहीं,
ये तो हर बच्चे का अधिकार है
अगर ये भी न दे पाए उसे हम
तो समझो समाज हमारा लखवे (paralysis) का शिकार है



- मनप्रीत

Corona Warrior

 


मुँह पे मास्क, हाथों में gloves पहनता हूँ
आधा लीटर sanitizer मलता हूँ
Facesheild लगाता हूँ
अब मैं डॉक्टर जैसा नज़र आता हूँ

माँ मेरी कहती थी, "बेटा डॉक्टर बनना"
आज देख के मुझे, खुशी से उसकी आंखें भर आती हैं
आते-जाते मुझे वो sanitizer का तिलक लगती है
और ऑफिस के चक्रव्यू मैं घुसने से पहले "दो गज़" की दूरी का पाठ पढ़ाती है

फिर कुछ घबराती है
कांपते हुए हाथों से मुझे PPE kit पहनाती है
पर देख कर मुझे, गर्व से उसका सीस उठ जाता है
आखों में एक चमक आ जाती है
जैसे किसी डॉक्टर के पहले ऑपरेशन के बाद मरीज़ की जान बच जाती है



- मनप्रीत

कोरोना


हर गली, नुक्कड़, चौराहे पर अब कोई नज़र नहीं आता है
सुनसान मुहल्ले हैं, वीरान पड़े रास्ते हैं
न तो कोई गुरद्वारे जाता है, न कोई मंदिर की घंटी बजाता है
शहर मेरा मुझे अब बहुत वीरान नज़र आता है


रातों का सन्नाटा अब और हो गया है गहरा
हमारी आज़ादी पर अब लग गया है पहरा
फुर्सत के पल भी अब ये रास नही आते
मेरे शहर की तुम "नज़र" क्यों नही उतारते ?

सारे पशु -पक्षी, जानवर भी परेशान हैं, कहाँ छुप गए सब इंसान हैं ?
पहले तो हम पे बहुत धौंस जमात था
हर जानवर को सताता था
ये हमें दिए गए दर्द की मिली इससे सौग़ात है
एक virus ने दिखा दी इसे , इसकी क्या औक़ात है

खौफ़ कुछ ऐसा है जनाब,
कि दरवाज़ा खुला है मेरा, पर अब कोई आता नहीं
घर की मुंडेर पर मेरी अब, पंछी भी गुन- गुनाता नहीं
सुबह-शाम कुछ इस तरह उदास बीत जाती हैं
मानो किसी आने वाली क़यामत का आभास करती हैं

कभी-कभी याद करता हूं...

कहाँ गए वो दिन, जब बाज़ार में चाट-पकोड़ी खाया करते थे
छोले भटूरे, टिक्की, मोमोस तो अब बस सपनों की बात है
होठों पे अब भी मेरे गुलाब जामुन, हलवा और रसगुल्ले की चाशनी की मिठास है
पर रस्ते पर, न कोई ठेली, न खुली है कोई दुकान
कहीं नहीं मिलते अब वो स्वादिष्ठ पकवान
हाय रे इंसान, तूने बना डाला सारा शहर शमशान।



- मनप्रीत

शुक्रवार, जुलाई 13, 2018

तुम क्या जानो...


जो हर पल भीगने से डरता है
वो बारिश के मौसम में कुछ miss करता है
बारिश में भीगने का मज़ा
तुम क्या जानो...

जो इस सौंधी सी ख़ुशबू में पल्लू ओड लेता है
खिड़की बंद कर इत्तर छिड़क लेता है
इस पहली बारिश में, मिट्टी की प्यारी सी महक
तुम क्या जानो...

जो जाड़े में ठंडा खाने से परहेज़ करता है
4-4 स्वेटर पहन कर, ख़ुदको महफूज़ रखता है
इस सर्दी में दांत कप-कपाते हुए ठिठुरने का मज़ा
तुम क्या जानो...

जो तप्ति गर्मी में झट से AC चालू कर लेता है
माथे का पसीना टपकने से पहले, उसे पूंछ देता है
इन शीतल हवाओं में, पेड़ के नीचे सोने का मज़ा
तुम क्या जानो...

वो, जो मेरी हर रचना पढ़ता है
उकसे बाद मेरे जज़्बातों की गहराइयों में उतरता है
बिना मेरी कविताओं को पढ़े
मुझे, तुम क्या जानो...


- मनप्रीत

शुक्रवार, अप्रैल 28, 2017

तिरंगा बोला...


बिकता हूँ मैं तो दुकानों में

लहराता हूँ मैं आसमानों में,

कभी किसी बच्चे के हाथों में समां जाता हूँ

तो कभी किसी मंत्री के मेज़ की शोभा मैं बढ़ाता हूँ

और नए दौर के फैशन के चलते जाने कहाँ - कहाँ नज़र आता हूँ

पर कीमत मेरी, सरहद के उस फौजी से पूछो

जो मेरी शान की खातिर सब कुछ नियोछावर कर जाता है

और अंतिम यात्रा में भी वो मेरे, आंचल तले सो जाता है

नाकि उस व्यक्ति से पूछो, जो चंद सिक्कों की खातिर सौदा मेरा कर आते हैं...

सच पूछो तो उसदिन मेरी आत्मा के चिथड़े - चिथड़े हो जाते हैं

पर फिर भी मैं हूँ सब कुछ सहता, चाहे अखियों से है नीर बहता

तीन रंगों का मेल हूँ मैं

हर रंग महत्व अपना दर्शाता है

तभी हर व्यक्ति के दिल में, अपने लिए मुझे कुछ प्यार नज़र आता है



- मनप्रीत

रंग 'पी' के प्यार का...

रंग वही अच्छा जो सब में घुल जाए

घुले ऐसा की फिर धुले न धुल पाए

धोए- धोए धोबी उसे, आपन ही रंग जाए

रंग इतना गहरा की मधिरा भी फीकी पड़ जाए

जो मन पे लागे एक बार, तो वह भी बावरा हो झूम जाए

बावरा मन फिर जाने कौन से रंग में रंग जाए

जो देखे खुद को आईने में हर रंग अपना ही भा जाए

अपने हर रंग में उसे कई रंग नज़र आए

उन्हीं रंगों में रंग के "मीरा" जोगन कहलाए




- मनप्रीत

गुरुवार, अप्रैल 27, 2017

चुनाव


चुनाव के season में एक नेता जी मेरे घर आए,
हाथ जोड़े और थोड़ा मुस्कुराए
चुनाव चिन्ह था उनका "ख़रबूजा",
बोले मुझ जैसा नहीं मिलेगा तुम्हे दूजा
केवल हमारी पार्टी आपकी ज़िन्दगी को स्वर्ग जैसा बना सकती है,
और आपको "स्वर्गवासी" होने का एहसास करवा सकती है


कहने लगे, चाहे जितनी भी सहनी पड़े मुझे ज़िल्लत
बियर, दारू, वोदका की नहीं होगी किल्लत
खैनी, गुटखा हर जगह मिलेगा
और बीड़ी, सिगरेट, subsidised रेट पर बिकेगा

Valentines day को सरकारी छुट्टी घोषित कर दी जाएगी
पतियों की उस दिन की सैलरी, पत्नियों को गिफ्ट में दी जाएगी।
आशिक़ों को भी पूरा सम्मान दिया जाएगा,
तीन से ज़्यादा girlfriend संभालने वाले को पदमश्री से सम्मानित किया जाएगा।

Security में नहीं कोई ढील होगी,
हर चोर से अपनी, एक फिक्स डील होगी
CCTV कनेक्शन हर और होगा
Wifi signal मुफ़्त का है, इसलिए थोड़ा कमज़ोर होगा

बिजली, पानी भी हर जगह सप्लाई होगा
रोटी हो न हो, पर हर घर में टाटा स्काई होगा
बीवी का हर हफ़्ते माइके जाने पर बैन कराया जाएगा
और, ससुराल से आने वाले सामान पर GST लगाया जाएगा

मिलके हम ऐसा खुशाल देश बनाएंगे
की Canada वाले भारत की citizenship को तरस जाएंगे

मैं बोला, नेताजी वादे तो आप खूब करते हैं
योजनाएं भी बहुत बनाते हैं
पर सारे manifesto आपके, रद्दी के भाव बिक जाते हैं
लेकिन दुःख की है बात,
की हर गरीब की प्लेट में रोटी तभी है आती
जब ELECTION COMMISSION चुनावों की तारीख है सुनाती


- मनप्रीत

शनिवार, फ़रवरी 28, 2015

कुछ तो चाहिए...


जीने के लिए चंद साँसे चाहिए,
ज़ेहन में किसी अपने की यादें चाहिए


सम्भलने के लिए एक सहारा चाहिए,
बहती नदी को एक किनारा चाहिए 

कुछ पाने के लिए, कुछ खोने का होंसला चाहिए,
उस खुदा पे थोड़ा सा भरोसा चाहिए


इबादत में थोड़ा सा असर चाहिए,
हर किसी को एक हमसफ़र चाहिए


शम्मा को परवाना चाहिए,
कृष्ण को भी मीरा सा दीवाना चाहिए 


फूलों को बहार चाहिए
और इस कविता को आपका थोड़ा सा प्यार चाहिए...


- मनप्रीत

बुधवार, जनवरी 01, 2014

हैप्पी न्यू इयर



वो ही होंगी तस्वीरें
वो ही होंगे नज़ारे
वो ही सूरज, चाँद रहेंगे
वैसे ही टिम- टिमाएंगे तारे,
क्या इस नए वर्ष में, कुछ बदलेगा प्यारे?


वो ही होंगे नेताओं के भाषण
वैसे ही महंगा मिलेगे राशन
एक साल ओर बीत गया कुछ झूठी उम्मीदों के सहारे,
क्या इस नए वर्ष में, कुछ बदलेगा प्यारे?


वैसे ही हम दफ़्तर जाएंगे
रोज़ की तरह ही मेट्रो में धक्के खाएंगे
कल भी जीतना होगा हमें, अपने ही सहारे
क्या इस नए वर्ष में, कुछ बदलेगा प्यारे?


वो ही आतंकवाद पुराना होगा
वैसे ही अनन्याये हमें इस साल भी सहना होगा
अब भी लड़कियां निकलेंगी घरों से भगवान के सहारे,
क्या इस नए वर्ष में, कुछ बदलेगा प्यारे?


बदलेगी तो सिर्फ ये तारीख़...


असल में साल वो ही पुराना होगा
केवल नए कपड़ों का कवच पहना होगा
जिस दिन खुल जाएंगे हमारे सोच के दायरे
उस दिन साल भी बदल जाएगा प्यारे...


" नया साल आपको बहुत-बहुत मुबारक हो..."


- मनप्रीत

शनिवार, अगस्त 17, 2013

महंगाई डायन खाए जात है...

रुपया हुआ साठ(60) का
अब "ठाट" किस बात का???


विदेश जाने का सपना अब अपना रह जाएगा
रुपया हमारा अब "Senior Citizen" कहलाएगा


इससे न तुम कुछ अब खरीद पाओगे
यौवन के किस्से इसके बच्चों को सुनाओगे


दूध, फल, सब्जियां सब महंगा हो जाएगा
आम आदमी को तो केवल "ठेंगा" ही मिल पाएगा


पेट्रोल, डीजल, बजली के भी दाम बढ़ जाएंगे
1000w का करंट जेबों पे लगाएंगे


स्कूटर, गाड़ियाँ अब कम चल पाएंगी
साइकिल, बैल-गाड़ियाँ कि सेल लग जाएगी
 

ज्यादा नहीं तो थोड़ी सी ये बात मेरी मान लो
ज्ञान की ही बात इससे गाँठ तुम बांद लो


महंगाई के मौसम में इस बात कि है चर्चा
जो आमदनी हो रुपैया, अठन्नी करो खर्चा


नहीं तो ये महंगाई घर में घुस जाएगी
घर में घुस कर तेरा बजट हिलाएगी

 
ऐसे चलेगा तो मैं कैसे जी पाऊँगा??
क्या सांस लेने के लिए भी "टैक्स" चुकाऊंगा??



- मनप्रीत

शुक्रवार, जून 07, 2013

वक़्त

कभी मेरा दिल कहता है...

की कोई इस जाते हुए वक़्त को थाम ले,

इस भागती हुई ज़िन्दगी को थोड़ा तो आराम दे...

कुछ पल ज़िन्दगी के मैं जी तो पाऊँ

इन उखड़ी हुई साँसों को संभाल तो पाऊँ,

एक नज़र खुद पे भी तो डाल लूं

क्यों न आज अपना ही पूछ मैं हाल लूं???

कुछ रिश्ते जिनकी कड़ियाँ मैं तोड़ आया हूँ

उन्हें फिर एक नाम दूं

उन खोई हुई तस्वीरों को, कुछ बिखरे हुए रंगों को कागज़ पे मैं उतार दूं

इससे पहले की वह कहीं खो जाएं

ज़िन्दगी फिर से बेरंग हो जाए

क्यों ना इस वक़्त को तस्वीरों के ज़रिए ही थाम लिया जाए...



- मनप्रीत

सोमवार, जुलाई 30, 2012

एक आरज़ू...


कभी ये सोचता हूँ की ज़िन्दगी के कुछ सुन्हेरे पल
तेरे दामन में सर रख कर गुज़ार दूं ...

ये चंचल हवाएं तुम्हे मेरे पास ले आएं, और मैं...

...और मैं तेरी इन आँखों की गहराइयों में डूब जाऊं

तेरी इन जुल्फों के साए में ताउम्र यूँ ही गुज़ार दूं

तेरी इन बाहों का हार, जिन के लिए था मैं जन्मों से बेकरार,
आज उसे मैं अपना बना लूं...

पर फिर ये सोचता हूँ, जो तू मेरी ना हो सकी
तो मैं कैसे जी पाऊँगा ?

शायद इन्ही आँखों में, इन्ही बाहों में, इन्ही जुल्फों की जुस्तजू में
एक दिन स्वाह हो जाऊँगा...

पर सवाल ये है क्या फिर भी मैं तेरे दिल में घर कर पाऊँगा ???



- मनप्रीत

रविवार, जुलाई 08, 2012

न जाने वो क्या है?


क्या कहूं मैं उससे की वो क्या है...

वो झूमती हवा है

या कोई छाई हुई घटा है...

वो फूलों सी कोमल है

या शांत पानी में कोई हल-चल है...

वो जीने की एक उम्मीद है

या मेरे दिल के बहुत करीब है...

वो चेहरे की मुस्कान है

या मेरे मन का कोई अरमान है

वो हाथों की लकीर है...

या मेरे माथे पे लिखी तकदीर है

वो ज़िन्दगी का एक सहारा है

या लहरों को मिल जाए वो किनारा है...

नहीं जानता हूँ मैं की वो क्या है

बस इतना ही कहूँगा की

वो हर पल मेरे साथ है

वो केवल एक एहसास है...



- मनप्रीत

रविवार, मई 27, 2012

मेहँदी..


इस कविता में मैंने एक बेटी के मन की व्यथा लिखने की कोशिश की है जिसके मन में एक
तरफ तो अपने पिया के घर जाने की ख़ुशी है, और दूसरी तरफ अपने पिता से बिचड़ने
का गम है।

मेहँदी मेरे हाथों की क्या कहती है बाबुल्वा
देस तेरा होयो परायो रे...

अंगना वो पीछे छूट गयो
सखी-सहेलडिया भी सब रूठ गयो
अन्सूअन संग ये बहता कजरा क्या कहता है बाबुल्वा
देस तेरा होयो परायो रे...




अब न सुन पाओगे तुम मेरी बतियन
अब न तुम्हारी गोद में सर रख के सो पऊंगी
मेरे हाथों का ये "चूड़ा" क्या कहता है बाबुल्वा
देस तेरा होयो परायो रे...

जो पल तेरे साथ बिताये मैंने, उनकी यादें छोड़ जाऊंगी
भाई-बहनों से मूंह मोड़ कर, पिया देस चली जाऊंगी
दिल की मेरी ये धड़कन ये कहती है  बाबुल्वा  
अब मैं तेरे अंगना से जल्दी ही उड़ जाऊंगी...
और बाबुल जैसा प्यार पिया देस पाऊँगी...



- मनप्रीत



रविवार, अप्रैल 01, 2012

कभी तू कभी मैं...


कभी तू ना छत पर आ सकी
कभी मैंने मौका गवा दिया
कभी तू ना मुझसे कह सकी
कभी मैं कहते-कहते हिचकिचा दिया

कभी तू ना वक़्त पे पहुँच सकी
कभी स्कूटर मेरा चला नहीं
कभी तू ना मुझसे मिल सकी
कभी वक़्त मुझे भी मिला नहीं

कभी मैंने भी ज़ाहिर ना किया
कभी तू भी मुझे समझ ना सकी
कभी मैं तेरे बिन तड़पता रहा
कभी मिलके भी ये तड़प बुझ ना सकी

कभी मैं तुझे समझ ना पाया
कभी तू इतनी सरल हुई नहीं
कभी मैं ना गलती छुपा सका
कभी तूने भी माफ़ किया नहीं



- मनप्रीत

गुरुवार, मार्च 01, 2012

बस तू चल

तू रौशनी की तरह चमकता चल
तू आंधी की तरह बढता चल
जो राह में आ जाए अड़चन
तू उसको भी कुचलता चल

जब तक तेरी बाज़ुओं में जान है
जब तक तेरे होंसलों में उड़ान है
तुझे न कोई रोक पाएगा
आत्मविश्वास न तेरा कोई तोड़ पाएगा

तू सूरज सा दमकता चल
तू ज्वाला सा देहेकता चल
खुशबू से तेरी खिल जाए गुलिस्तान
तू फूलों सा मेहेकता चल

माँ-बाप की आसीसों की छाया में

बस तू यूं ही चलता चल
बस तू यूं ही चलता चल...


- मनप्रीत

गुरुवार, फ़रवरी 09, 2012

कुछ मैं लिखना चाहता हूँ



कुछ मैं लिखना चाहता हूँ

पर लिख नहीं पाता हूँ 

फिर अपनी कलम उठाता हूँ

एक गहरी सांस भरता हूँ

आँखों को मूँद लेता हूँ

कुछ ख्यालों में फिर मैं खो जाता हूँ

उन रंगों का केवल मैं आभास कर पता हूँ

उस चेहरे को केवल मैं ख्वाबों में ही देख पाता हूँ

उस ख्याल को ज्यों ही मैं कागज़ पे उतारना चाहता हूँ

फिर एक पल मैं थम जाता हूँ

कुछ मैं लिखना चाहता हूँ

पर लिख नहीं पता हूँ



- मनप्रीत

रविवार, जनवरी 22, 2012

बच्चा बनना चाहता हूँ...


कुछ यादें जिनसे मैं नाता तोड़ आया हूँ 
एक उम्र जो पीछे छोड़ आया हूँ
उसे फिर मैं जीना चाहता हूँ
आज मैं फिर से बच्चा बनना चाहता हूँ



वो हमदम जो मुझसे रूठ गए थे
वो साथी जो कहीं छूट गए थे 
उन्हें फिर से गले लगा के, जी भर के हंसना चाहता हूँ
आज मैं फिर से बच्चा बनना चाहता हूँ



वो खेल जो खेला करते थे
वो रस्ते जहाँ मेले लगा करते थे
उन गलियों के रस्ते से, मैं फिर गुज़रना चाहता हूँ
आज मैं फिर से बच्चा बनना चाहता हूँ

वो एक पल में रूठना और मान जाना
वो कागज़ के हवाई जहाज़ बना के, कॉपियों का खत्म हो जाना
आज उन खेलों को मैं फिर से खेलना चाहता हूँ
आज मैं फिर से बच्चा बनना चाहता हूँ

वो दोस्त जिनके साथ की पढ़ाई मैंने
जिनके साथ हमेशा सज़ा पाई मैंने
उनके साथ मिलके दो पल गुज़ारना चाहता हूँ 
आज मैं फिर से बच्चा बनना चाहता हूँ

वो सुबह स्कूल ना जाने के हजारों बहाने बनाना
बस निकलते ही सब पेट दर्द ठीक हो जाना
और आधी छुट्टी से पहले चुपके से लंच खाना
उस खाने का ज़ायका मैं फिर से चखना चाहता हूं
आज मैं फिर से बच्चा बनना चाहता हूँ...


-मनप्रीत

रविवार, दिसंबर 18, 2011

नैनों की भाषा



कभी किसी की याद में पलकें मेरी भीग जाती हैं
तो कभी ख़ुशी के मारे ये बिना वजह भर आती हैं
ना जाने ये आँखें क्या कहना चाहती हैं...

जो देख ले कोई प्यारभरी  नज़र से
शर्म से ये झुक जाती हैं
जागती आँखों से ही कितने, ख्वाब ये देख जाती हैं
ना जाने ये आँखें क्या कहना चाहती हैं...

कभी किसी की तलाश में बेचैन हो जाती हैं
बिछड़ जाए कोई अपना तो सारी रात जगाती हैं
हर पल सूरत उसी की फिर आईने में नज़र आती हैं
ना जाने ये आँखें क्या कहना चाहती हैं...

कभी ये सोचता हूँ दिल की मेरे व्यथा,
माँ कैसे जान जाती है?
जितना छुपाऊँ माँ तुझसे मैं
भेद मेरे ये सारे खोल जाती हैं
ना जाने ये कम्बखत आँखें क्या कहना चाहती हैं...

कौन जानता है किस मुसीबत में ये डाल दे हमें
ज़िंदगी की किन लहरों में डूबा दें हमें
हर पल हम जीते हैं,
हर पल हम मरते हैं
पर अब इन आँखों पे, हम भरोसा नहीं करते है...



- मनप्रीत

शुक्रवार, अक्टूबर 28, 2011

एक राज़

हर राज़ मेरे तुम कहीं छुपा देना
दामन में अपने कुछ इस तरह दबा देना
कि कोई इसे फिर ढूंड न पाए
हाथों की लकीरों से भी इनके निशान मिट जाएं
तेज़ हवाओं के झोकों में
वो सफ़े कहीं उड़ा देना
हर राज़ मेरे तुम कहीं छुपा देना

जो हो तुम खफा मुझसे,
तो मुझे कभी जता देना
अपने इन एहसासों को
मेरी धड़कन तक पहुंचा देना
जो फिर भी समझ न पाऊँ तुमको
'नासमझ' मुझे कहला देना
पर ये राज़ तुम कहीं छुपा देना

"चेहरा एक नकाब के पीछे छुपा रखा है मैंने
हर गुनाह को फूलों की तरह सजा रखा है मैंने"

जब बहती नदी की धारा में
ये अस्थियाँ मेरी बहा देना
तब तुम चाहे सबको
ये राज़ भले बतला देना...




- मनप्रीत


शुक्रवार, अगस्त 19, 2011

जनलोकपाल


ये गाना "जनलोकपाल" को समर्पित है, जो की 1954 "जागृति" फिल्म के गाने "आओ बच्चो तुम्हें दिखाएं" में कुछ बदलाव करके मैंने बनाया है, आशा करता हूँ की आपको पसंद आएगा

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आओ लोगों तुम्हे दिखाएं शमता जनलोकपाल की
इस बिल को तुम गले लगाओ ये क्रांति है बदलाव की

जनलोकपाल जनलोकपाल...
जनलोकपाल जनलोकपाल...

सबसे बड़े लोकतंत्र पे हमको भी अभिमान है
लेकिन कुछ लोगों ने करदी नीची इसकी शान है
भ्रष्टाचार के दल-दल में फंस गया ये हिंदुस्तान है
देखो फिर से मांगे हमसे मिटटी ये बलिदान है,

आओ लोगों तुम्हे दिखाएं शमता जनलोकपाल की
इस बिल को तुम गले लगाओ ये क्रांति है बदलाव की

जनलोकपाल जनलोकपाल...
जनलोकपाल जनलोकपाल...

अन्ना जी के पथ पे चलके आगे बड़ते जाना है
इस बिल को मिलके हमने संसद में पास करना है
इस ज्वाला को हमने अपने लहू से फिर जलना है
आने वाली पीड़ी को एक उज्वल देश थमाना है

आओ लोगों तुम्हे दिखाएं शमता जनलोकपाल की
इस बिल को तुम गले लगाओ ये क्रांति है बदलाव की

जनलोकपाल जनलोकपाल...
जनलोकपाल जनलोकपाल...



- मनप्रीत



गुरुवार, जुलाई 28, 2011

मेरी नज़र से...(भाग-१)


जो बात आज मैं आप के सामने रखने जा रहा हूँ ये एक वास्तविक घटना  है  जिसे वैसे तो शब्दों में बयां करना मेरे लिए कुछ कठिन हैं क्योंकि वह एक एहसास हैं जिसे केवल महसूस किया जा सकता है परुन्तु फिर भी एक कोशिश कर रहा हूँ 

ये बात एक दोपहर की है, रोज़ की तरह ही मै मेट्रो से अपने दफ़्तर जा रहा था और रोज़ की तरह वो ही भीड़-भाड़, वो ही अफरा - तफरी का माहौल था, किसी को कहीं जाने की जल्दी तो किसी को कही जाने की । कोई अपने फोन पर बात कर रहा है तो कोई अपने वाज्य यंत्र पे गाने सुन रहा है और वहां दूर किसी कोने में एक प्रेमी जोड़ा एक दूसरे से अठखेलियां कर रहा है

पर दोस्तों इस सब अफरा - तफरी के माहौल के बीच जहाँ हर कोइ अपनी ही धुन में रंग है, दो शख्स मुझे कुछ अलग से दिखाई दिए जिन्होंने मेरा ध्यान अपनी और आकर्षित किया। अलबत्ता दोनों ही देखने में बहुत ही सामान्य नज़र आ रहे थे, दोनों ने सामान्य से ही वस्त्र पहने थे और दिखने में भी पड़े लिखे लग रहे थे। पर फिर भी उनमे और एक सामान्य व्यक्ति में बहुत अंतर था और वह अंतर ही उन्हें भीड़ से अलग करता था


हालांकि मैं उनसे कुछ ही फासले पर ही खड़ा था पर फिर भी उनकी गुफ्तगू नहीं सुन पा रहा था, पर वह दोनों स्वाभाव से बहुत ही जिंदादिल और खुशमिज़ाज मालूम पड़ते थे और उनके चेहरे से बहुत ही शीतलता छलकती थी एक पल तो दिल ने चाहा की उनकीं इस जिंदादिली का राज़ पूछूँ पर शायद हिम्मत नहीं जुटा पाया और केवल दो चार- कदम आगे बड़ा  के ही रुक गया। लेकिन अब भी में उनकी बातें नहीं सुन पा रह था, समझ नहीं पा रहा था की मेट्रो में शोर ज़्यादा था या मेरे कान ख़राब हो गए हैं। पर कुछ देर उन्हें गौर से देखने के बाद मुझे ज्ञान हुआ के वह दोनों बोल-सुन नहीं सकते, वह केवल इशारों की भाषा ही समझते हैं और ये ही बात उन्हें भीड़ से अलग करती थी 

उन दोनों को देख कर मुझे दुःख तो हुआ पर साथ ही साथ मैं बहुत हैरान भी हुआ ये देख कर की भला कैसे कोई बिना बोलने - सुनने की शमता के बिना इतना खुश रह सकता है? क्या हर पल उन्हें अपनी इस कमी का एहसास नहीं होता? क्या उन्हें रोज़ मररह की ज़िन्दगी में सामान्य लोगों के बीच हास्य का पात्र नहीं बनना पड़ता?

हम इंसानों की आदत होती है की अक्सर हम असामान्य चीज़ को एक-टुक  हो कर देखते हैं बिना ये सोचे समझे की हमारी ये निगाहें किसी को तलवार से गहरा ज़ख़्म  दे सकती है। बहराल इन सब सवालो का जवाब तो केवल वो ही व्यक्ति दे सकता है जो इन हालातों से गुज़रता है। 

हो सकता है मुझे केवल उनकी हंसी ही नज़र आई हो, उस हंसी के पीछे छुपा वह दर्द मेरी कमज़ोर नज़र न देख पाई हो "हम जो हँसते हैं तो उन्हें लगता है के हाल-ए-दिल अच्छा है, पर वह ये भूल जाते हैं की हँसते हुए भी आंसू टपका करते हैं " 

उन दोनों की वह मीठी सी मुस्कान मुझे आज भी याद है और मैं जब भी उसके बारे में सोचता हूँ अपने आप को सामान्य होने के बावजूद उनके सामने बहुत ही छोटा महसूस करता हूँ...