जिसका का था ता-उम्र इंतज़ार
न इल्म था, वो पल कुछ इस तरह आएगा
एक तेज़ हवा का झोंका बनके, मुझे साथ ले जाएगा
और मैं... और मैं एक सूखे पत्ते की जैसे उसमे कहीं खो जाऊंगा
संभालना चाहूं खुदको, फिर भी नहीं संभाल पाऊंगा
पर शायद, ये ही तो मैं चाहता था!
संभालना चाहूं खुदको, फिर भी नहीं संभाल पाऊंगा
पर शायद, ये ही तो मैं चाहता था!
की वो पानी के जैसे बहती रहे, मैं तिनके के जैसे बह जाउं
वो शम्मा के जैसी जलती रहे, और मैं परवाना बन के जल जाउं
पर अफ़सोस...
पर अफ़सोस इसी बात का रह गया
कि वो पल चंद लम्हों में बह गया
रोकना चाहा मैने उसे, पर वो पल रुका नहीं
यादों में जब झांका, तो भी कहीं दिखा नहीं
ख़्वाब था शायद, ख़्वाब ही होगा...
- मनप्रीत