जैसे- जैसे रात का नशा बढ़ता है, हल्का-हल्का सा सुरूर चढ़ता है,
चारों और सन्नाटा है, दूर तक कोई शख्स नज़र नहीं आता है
सन्नाटा पहले इतना खामोश न था, जितना आज सुनाई पढता है,
धीमे-धीमे घड़ी के कांटे यूँ चलते हैं, जैसे न चाह के भी अपना फ़र्ज़ पूरा करते हैं
जैसे-जैसे रात का शबाब चढ़ता है, लौ का नाच चलता है,
और कुछ देर बाद वह भी फढ़ - फढ़ाने लगती है,
चारों और सन्नाटा है, दूर तक कोई शख्स नज़र नहीं आता है
सन्नाटा पहले इतना खामोश न था, जितना आज सुनाई पढता है,
धीमे-धीमे घड़ी के कांटे यूँ चलते हैं, जैसे न चाह के भी अपना फ़र्ज़ पूरा करते हैं
जैसे-जैसे रात का शबाब चढ़ता है, लौ का नाच चलता है,
और कुछ देर बाद वह भी फढ़ - फढ़ाने लगती है,
जल-जल के उसकी साँसें भी उखड़ने लगती हैं
पर इस अन्जुमन में आज भी कोई नहीं आता है,
पर इस अन्जुमन में आज भी कोई नहीं आता है,
लौ का तमाशा धीरे-धीरे आज फिर ख़त्म हो जाता है,
आज फिर एक दीये की लौ का कत्ल हो जाता है...
आज फिर एक दीये की लौ का कत्ल हो जाता है...
- मनप्रीत
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