किसी घायल को देख सड़क पर
हम मूंह फेर जाते हैं
क्या फिर भी हम "इंसान" कहलाते हैं?
सारा दिन पैसों के पीछे
दौड़ते-दौड़ते थक जाते हैं
पर दो पल चैन से जीने के
फिर भी कहाँ मिल पाते हैं
क्या फिर भी हम "इंसान" कहलाते हैं?
रात को हम हैं काम करते
दिन में फिर खर्राटे भरते
दिवाली, होली पे भी
अब हम दफ्तर जाते हैं
क्या फिर भी हम "इंसान" कहलाते हैं?
अपना ज़मीर तो बेच चुके
अब देश को बेच हम खाते हैं
राजा, कलमाड़ी के जैसे ही
देश का सर झुकाते हैं
क्या फिर भी हम "इंसान" कहलाते हैं?
कसाब को हम हैं पकड़ते
उसकी फिर हैं पूजा करते
फँसी देने की जगह
उसे हम "खसम" बनाते हैं
छींक ज़रा सी आ जाने पर
डॉक्टरों की फ़ौज बुलाते हैंभूख लगने पर उसे
"बटर चिक्केन" खिलाते हैं
क्या फिर भी हम "इंसान" कहलाते हैं?
छोटी-छोटी बात पे
अपनों से लड़ जाते हैं
जाने-अनजाने में अक्सर
कितनो का दिल दुखाते हैं
पर हमेशा ये भूल जाते हैं
पर हमेशा ये भूल जाते हैं
के "गाँठ" लगे रिश्ते
आसानी से नहीं खुल पाते हैं
क्या फिर भी हम "इंसान" कहलाते हैं?
- मनप्रीत
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