मन में फिर से हलचल सी होने लगी है,
कुछ तो है ऐसा जो मुझसे कहीं छूट गया है,
क्या वो मेरा अक्स था जो मुझसे आज रूठ गया है?
'जी' के जंजाल में उलझ कर रह गया हूँ
एक अन-सुलझी पहेली सी बन कर रह गया हूँ
साँसे भी जीने के लिए अब तो उधार लेता हूँ,
बस इस ही तरह दिन-रात मैं गुज़ार लेता हूँ...
रेत की तरह ये वक़्त मेरे हाथ से फिसल गया है,
सेहरा(Desert) में मिटटी की तरह अब अक्स मेरा बिखर गया है...
न इल्म था की अपनी आशाओं की नब्ज़ कुछ इस तरह थम जाएगी,
के अपने ही आंसुओं से अपनी प्यास मिट जाएगी...
बस कटी पतंग के जैसे उड़ता जा रहा हूँ
बिना मंजिल के अब मैं चलता जा रहा हूँ
मन के चिरागों को अब किसी का खौफ नहीं,
इसीलिए अब इन्हें हवाओं से बचा रहा हूँ...
धूप के साए में अक्स मेरा कहीं छुप जाता है
आईने में भी अब वह मुझे नज़र नहीं आता है
इसकी तलाश में अब मैं आपके दर पर आया हूँ
मिले कहीं आपकों तो इससे मुझे मिला देना,
और अगर ये मुमकिन ना हो तो आज किसी रोते हुए बच्चे को हँसा देना...
- मनप्रीत
1 टिप्पणी:
badhiya kavita...badhai....
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