ना जाने वक्त को क्या मंज़ूर था
लगता जो बहुत दूर थाआज वो इतने करीब आ गया
माज़ी (Past) के भरे हुए ज़ख्मों को फिर से सहला गया
जो मांगी थी सजदे में हाथ उठा कर मैने, वो फिर से याद आ गई
लगता है आज मेरी दुआ क़ुबूल होने कि बारी आ गई
पर ए खुदा! पूछता हूँ मैं तुझसे...
क्या करूं मैं इस दुआ का अब ??
जिसका अब कोई वजूद नहीं
मैं तो... मैं तो इसे कब का भुला चुका हूं
सीने में कहीं दफ़ना चुका हूं
फिर क्यों तूने ये पूरी कर दी ??
क्या मेरी फेरी हुई तस्बीह (जप माला) ने तेरी आँखें भरदी ?
पर कुछ ऐसे किस्से, कुछ ऐसी यादें
जिन्हें न जता सकता हूं, न छुपा सकता हूं, न दिखा सकता हूं
जिन्हें सिर्फ पलकों तले दबा सकता हूँ
जिन्हें मैं अपनी हाथों की लकीरों से भी मिटा चुका हूं
डरता हूँ, कहीं फिर न वो सामने आ जाए
और अश्क बन कर मेरे दामन में छलक जायें
पर वादा है मेरा तुझसे खुदा...
एक रोज़ जब मैं घर आऊंगा तेरे
लूँगा तुझसे हिसाब, दिए गए हर दर्द का मेरे
पर मैं जानता हूँ...
मेरे हर सवाल को तू हंस के टाल देगा
हर बात में मेरी ही गलती निकल देगा ज़रूर
शायद मेरी एक और माज़ी (Past) की दुआ कर देगा क़ुबूल
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